हाइलाइट्स:
- Wakf Amendment Act को लेकर कांग्रेस प्रवक्ता अब्बास हफीज ने सुप्रीम कोर्ट से की बड़ी मांग
- कहा, जैसे राम मंदिर आस्था का विषय था, वैसे ही यह कानून भी हमारी आस्था से जुड़ा है
- बयान के बाद सोशल मीडिया पर उठी तीखी बहस और राजनीतिक प्रतिक्रिया
- धार्मिक मामलों को लेकर न्यायपालिका की भूमिका पर उठे नए सवाल
- कई संगठनों ने अब्बास हफीज के बयान का किया समर्थन और विरोध
अब्बास हफीज का बयान और Wakf Amendment Act पर उठे नए सवाल
राजनीतिक गलियारों में उस समय हलचल मच गई जब कांग्रेस प्रवक्ता अब्बास हफीज ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा कि अगर राम मंदिर को आस्था का विषय मानकर सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला सुनाया, तो Wakf Amendment Act को भी आस्था का विषय मानकर रद्द किया जाना चाहिए।
उनके इस बयान ने न केवल राजनीतिक पटल पर एक नई बहस छेड़ दी है, बल्कि न्यायपालिका, धर्म और राजनीति के जटिल रिश्तों को भी फिर से उजागर कर दिया है।
क्या है Wakf Amendment Act?
Wakf Amendment Act मुस्लिम समुदाय की धार्मिक संपत्तियों से जुड़ा एक कानून है। वक्फ अधिनियम 1995 में बना था और इसमें 2013 में संशोधन किया गया। इसके अंतर्गत मुसलमानों की धार्मिक और सामाजिक संस्थाओं की संपत्तियों को संरक्षित रखने और उनके उपयोग को नियंत्रित करने की व्यवस्था की गई है।
2013 के संशोधन के तहत वक्फ बोर्ड को अधिक अधिकार दिए गए, जिससे यह तय किया जा सके कि कौन-सी संपत्ति वक्फ की है और उसका नियंत्रण किसके पास रहेगा।
अब्बास हफीज का दावा है कि यह कानून अन्य समुदायों के धार्मिक अधिकारों के साथ असमानता पैदा करता है और इसलिए इस पर भी उसी तरह विचार होना चाहिए जैसे सुप्रीम कोर्ट ने राम जन्मभूमि विवाद पर किया।
अब्बास हफीज के बयान की पूरी तस्वीर
अब्बास हफीज ने कहा:
“हम यह नहीं कह रहे कि राम मंदिर पर जो फैसला आया वह गलत था। हम कहते हैं कि अगर आस्था की बुनियाद पर फैसला हो सकता है, तो फिर Wakf Amendment Act जैसे कानून, जो हमारी आस्था से जुड़े हैं, उन्हें भी चुनौती दी जा सकती है।”
उनके अनुसार, आस्था सिर्फ बहुसंख्यकों की नहीं होती, अल्पसंख्यकों की भी होती है, और अगर न्यायपालिका सभी नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करती है, तो समानता के सिद्धांत के तहत सभी धर्मों को एक नजरिए से देखा जाना चाहिए।
राजनीतिक हलकों में बवाल
अब्बास हफीज के बयान के तुरंत बाद सत्तारूढ़ दल और अन्य विपक्षी दलों की प्रतिक्रियाएं सामने आईं।
भाजपा प्रवक्ता ने कहा:
“यह बयान भारत की न्यायपालिका पर सीधा हमला है। Wakf Amendment Act पर राजनीति करना एक सोची-समझी साजिश है।”
वहीं, कुछ वामपंथी दलों और सेक्युलर समूहों ने अब्बास हफीज के बयान को धार्मिक स्वतंत्रता की आवाज बताया और कहा कि यह समय है जब सभी धार्मिक कानूनों की पुनः समीक्षा हो।
सुप्रीम कोर्ट की भूमिका और आस्था बनाम संवैधानिकता
राम मंदिर पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला “आस्था और सबूतों के संतुलन” पर आधारित था। कोर्ट ने ऐतिहासिक, पुरातात्विक और सामाजिक तथ्यों के आधार पर निर्णय सुनाया था, जिसमें धार्मिक भावना को भी स्वीकार किया गया।
अब सवाल यह उठ रहा है कि क्या Wakf Amendment Act, जो एक पूर्णत: कानूनी और प्रशासकीय प्रकृति का कानून है, को “आस्था” के दायरे में लाया जा सकता है?
कई विशेषज्ञों का मानना है कि:
- सुप्रीम कोर्ट धर्मनिरपेक्षता की रक्षा करता है
- केवल धार्मिक भावना के आधार पर किसी भी कानून को रद्द करना संविधान के मूल ढांचे के विपरीत होगा
- फिर भी अगर कानून असमानता या पक्षपात को बढ़ावा देता है, तो उस पर पुनर्विचार होना चाहिए
इतिहास और वक्फ संपत्तियों से जुड़ा विवाद
भारत में वक्फ संपत्तियों की संख्या लाखों में है। इनमें मस्जिदें, कब्रिस्तान, मदरसे, और सार्वजनिक उपयोग की अन्य जगहें शामिल हैं।
कई बार इन संपत्तियों को लेकर विवाद हुआ है, खासकर तब जब वक्फ बोर्ड किसी संपत्ति को वक्फ घोषित करता है जबकि उस पर किसी अन्य समुदाय का दावा या उपयोग होता है।
यही विवाद Wakf Amendment Act के अस्तित्व पर सवाल खड़े करता है – क्या किसी भी संपत्ति को धार्मिक बता कर अधिग्रहित किया जा सकता है?
विशेषज्ञों की राय
संवैधानिक विशेषज्ञों का मानना है कि अब्बास हफीज का बयान कानूनी रूप से कमजोर हो सकता है, लेकिन राजनीतिक और सामाजिक विमर्श को नया दृष्टिकोण जरूर देता है।
“यह बयान यह दर्शाता है कि समाज में न्याय की धारणा सिर्फ कानून नहीं, भावनाओं पर भी निर्भर करती है।”
आस्था की नई परिभाषा?
अब्बास हफीज का यह बयान केवल एक राजनीतिक प्रतिक्रिया नहीं, बल्कि एक गहन प्रश्न है:
क्या आस्था को संविधान और कानून के समकक्ष रखा जा सकता है?
और अगर हां, तो क्या सभी धर्मों की आस्थाओं को समान दृष्टि से देखा जाएगा?
यह पूरा विवाद Wakf Amendment Act पर दोबारा बहस की शुरुआत हो सकती है – न केवल मुस्लिम समुदाय के भीतर, बल्कि सभी धर्मों में धार्मिक अधिकार बनाम कानूनी समानता के बीच संतुलन की मांग उठने लगी है।