भारतीय राजनीति और न्याय प्रणाली एक बार फिर चर्चा में हैं, और इस बार सवाल उठा है न्याय की निष्पक्षता पर। क्या हमारी न्याय व्यवस्था और राजनीतिक ढांचा सभी नागरिकों के लिए समान है? या फिर नाम, धर्म और राजनीतिक संबद्धता के आधार पर अलग-अलग मानदंड तय किए जाते हैं?
इस संदर्भ में, हाल ही में हुई घटनाओं ने गहरी बहस छेड़ दी है। मालेगांव ब्लास्ट की आरोपी साध्वी प्रज्ञा ठाकुर, जिन पर आतंकवाद से जुड़े गंभीर आरोप हैं, सांसद बन चुकी हैं। वहीं, 104 मुकदमों का सामना करने वाले टी. राजा सिंह विधायक के रूप में सक्रिय राजनीति में हैं। इसके उलट, ताहिर हुसैन, जो UAPA (गैरकानूनी गतिविधियां रोकथाम अधिनियम) के तहत जेल में हैं, चुनाव नहीं लड़ सकते।
सवाल यह उठता है कि क्या साध्वी प्रज्ञा और टी. राजा सिंह जैसे व्यक्तियों का चुनाव लड़ना उनके राजनीतिक दलों और विचारधाराओं के कारण संभव हुआ है, जबकि ताहिर हुसैन जैसे लोगों को उनके नाम या धर्म के आधार पर अलग नजरिए से देखा जा रहा है?
बम ब्लास्ट की आरोपी साध्वी प्रज्ञा सांसद बन सकती है, 104 मुक़दमे वाला टी राजा सिंह विधायक बन सकता है लेकिन सुप्रीम कोर्ट के हिसाब से UAPA के तहत जेल में बंदी ताहिर हुसैन चुनाव नही लड़ सकता है, क्यों? क्योंकि वह AIMIM के टिकट पर चुनाव लड़ रहा है? या उसका नाम ताहिर हुसैन है इसलिए… pic.twitter.com/nzmYUrGc5c
— Journo Mirror (@JournoMirror) January 21, 2025
क्या है मामला?
ताहिर हुसैन पर 2020 के दिल्ली दंगों में कथित भूमिका के लिए UAPA के तहत मामला दर्ज किया गया है। वहीं, साध्वी प्रज्ञा पर 2008 के मालेगांव बम धमाकों का आरोप है, जिनमें कई लोग मारे गए थे। बावजूद इसके, प्रज्ञा ठाकुर को न केवल जमानत मिली, बल्कि उन्होंने चुनाव लड़कर सांसद का पद भी हासिल किया।
दूसरी ओर, टी. राजा सिंह, जो कई आपराधिक मामलों में आरोपी हैं, विधायक के रूप में निर्वाचित हुए हैं। इन पर भड़काऊ भाषण देने और सांप्रदायिक विद्वेष फैलाने जैसे गंभीर आरोप हैं।
सुप्रीम कोर्ट और UAPA की भूमिका
UAPA के तहत जेल में बंद व्यक्ति चुनाव नहीं लड़ सकता, जब तक उसे अदालत से जमानत न मिले। सवाल यह है कि क्या इस कानून का समान रूप से पालन किया जा रहा है? ताहिर हुसैन को जमानत न देना और उनके चुनाव लड़ने पर रोक लगाना यह दिखाता है कि न्यायिक प्रक्रिया में कहीं न कहीं भेदभाव का आभास होता है।
राजनीति और न्याय: एक समीकरण
भारत के लोकतंत्र में न्याय और राजनीति के बीच संबंध हमेशा से विवादास्पद रहा है। क्या राजनीति में विचारधारा और धर्म न्यायिक फैसलों को प्रभावित करते हैं? यह सवाल हर जागरूक नागरिक को परेशान करता है।
यह समय है कि देश की न्यायपालिका और नागरिक समाज आत्ममंथन करें। यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि कानून का पालन हर व्यक्ति के लिए समान रूप से हो। लोकतंत्र तभी मजबूत होगा जब कानून और न्याय धर्म, जाति और विचारधारा से ऊपर उठकर काम करें।
क्या यह मुद्दा सिर्फ ताहिर हुसैन तक सीमित है, या फिर यह हमारी न्यायिक प्रणाली में गहराई तक फैले किसी बड़े सवाल का हिस्सा है? इसका जवाब सिर्फ समय देगा।
लेखक: जाकिर अली त्यागी