उत्तर प्रदेश में दलित समाज के खिलाफ हिंसा और भेदभाव की घटनाएं लगातार सुर्खियों में हैं। ये घटनाएं न केवल सामाजिक असमानता की भयावह सच्चाई को उजागर करती हैं, बल्कि प्रशासनिक उदासीनता और सरकार की विफलता को भी दर्शाती हैं।
बुलंदशहर: पुलिसकर्मी दूल्हे की घुड़चढ़ी पर हमला
बुलंदशहर के जहांगीराबाद थाना क्षेत्र के गांव टिटौटा में 11 दिसंबर को एक दलित पुलिसकर्मी की शादी के दौरान घुड़चढ़ी पर हमला हुआ। दूल्हा रोबिन, जो यूपी पुलिस में सिपाही है, घुड़चढ़ी की रस्म निभा रहा था। इस दौरान ऊंची जाति के दबंगों ने उसे घोड़ी से नीचे खींच लिया और मारपीट की। आरोपियों ने जातिसूचक गालियां देते हुए धमकी दी कि "दलित को घोड़ी पर चढ़ने का अधिकार नहीं है।"
घटना के दौरान शादी के डीजे को तोड़ दिया गया, महिलाओं के साथ अभद्रता की गई, और बारात को रोकने का प्रयास किया गया। पुलिस ने पांच आरोपियों को गिरफ्तार किया है, लेकिन यह घटना दलित समाज की सुरक्षा और सम्मान पर गंभीर सवाल खड़े करती है।
घटनाओं की लंबी फेहरिस्त
उत्तर प्रदेश में दलित दूल्हों की घुड़चढ़ी रोकने की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं। बदायूं (2017), अलीगढ़ (2018), और मुजफ्फरनगर (2024) जैसे मामलों ने प्रशासन की नाकामी को उजागर किया है। हर बार, दलित दूल्हों को घोड़ी पर चढ़ने से रोका गया, बारात पर हमले किए गए, और पुलिस की कार्रवाई सिर्फ मामूली गिरफ्तारी तक सीमित रही।
कुछ प्रमुख घटनाएं:
- 2017: बदायूं में दलित दूल्हे को मोहल्ले से घोड़ी पर चढ़कर गुजरने से रोका गया।
- 2018: अलीगढ़ में बारात पर पत्थरबाजी, और प्रशासन ने बारात का रास्ता बदलने का आदेश दिया।
- 2020: कानपुर देहात में दूल्हे को घोड़ी से खींचकर पीटा गया।
- 2023: आगरा में ठाकुर बिरादरी ने दलित दूल्हे की बारात पर हमला किया।
प्रशासनिक और राजनीतिक उदासीनता
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भले ही "सबका साथ, सबका विकास" का नारा देते हों, लेकिन जमीनी हकीकत अलग है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के आंकड़ों के अनुसार, उत्तर प्रदेश में दलितों के खिलाफ अपराधों में लगातार वृद्धि हो रही है।
घटनाओं के बाद मामूली कार्रवाई होती है, लेकिन सख्त सजा का अभाव जातीय भेदभाव को बढ़ावा देता है। बार-बार होने वाली ऐसी घटनाएं संविधान के समता और सम्मान के मूल्यों को चुनौती देती हैं।
जातीय भेदभाव का अंत कब?
डॉ. भीमराव अंबेडकर ने जिस समतामूलक समाज का सपना देखा था, वह आज भी अधूरा है। दलित समाज के लोग घुड़चढ़ी जैसी सामान्य रस्में भी जातीय भेदभाव के डर से नहीं निभा पाते।
जरूरत है कि सरकार इस मुद्दे पर गंभीरता से ध्यान दे और ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए ठोस कदम उठाए। जातीय मानसिकता को खत्म करने और दलितों को उनके अधिकार दिलाने के लिए सख्त प्रशासनिक और कानूनी उपायों की आवश्यकता है।
अगर ऐसा नहीं हुआ, तो "सबका साथ, सबका विकास" का नारा केवल एक दिखावा बनकर रह जाएगा, और दलित समाज की न्याय और सम्मान की लड़ाई और लंबी हो जाएगी।