महान दार्शनिक ओशो ने एक महत्वपूर्ण बयान देते हुए कहा कि महिलाओं की प्राथमिकताएँ शारीरिक संबंधों के बजाय आत्मीयता, प्रेम, और मित्रता में अधिक होती हैं। ओशो के अनुसार, जहाँ महिलाएँ गर्मजोशी, आलिंगन और भावनात्मक जुड़ाव में रुचि रखती हैं, वहीं पुरुष संभोग में अधिक रुचि दिखाते हैं। उनका मानना है कि पुरुष अक्सर इस मामले में जल्दबाजी में रहते हैं, जिससे ऐसा प्रतीत होता है मानो पुरुष महिलाओं को केवल भौतिक आकर्षण और शारीरिक संतोष के दृष्टिकोण से देखते हैं। ओशो का यह नजरिया समाज में गहरी जड़ें जमाए पितृसत्ता को चुनौती देता है और यह सवाल खड़ा करता है कि क्या समाज महिलाओं की भावनात्मक जरूरतों को समझने और उनका सम्मान करने के लिए तैयार है।
ओशो के इस विचार से स्पष्ट होता है कि महिलाओं की भावनात्मक प्राथमिकताओं को लेकर समाज की धारणा में गहरी खामियाँ हैं। पितृसत्तात्मक समाज में, महिलाओं को अक्सर केवल पुरुषों की इच्छाओं को पूरा करने के साधन के रूप में देखा जाता है, जिससे उनकी भावनात्मक और मानसिक ज़रूरतें दरकिनार हो जाती हैं। ओशो इस सोच पर प्रहार करते हुए समझाते हैं कि जब तक समाज महिलाओं की भावनाओं को पूरी तरह से नहीं समझेगा और उनका सम्मान नहीं करेगा, तब तक सच्ची समानता हासिल करना मुश्किल है।
ओशो का कहना है कि महिलाओं की प्राथमिकताएँ शारीरिक संबंधों की जगह आत्मीयता, मित्रता, और प्रेम में अधिक होती हैं, जबकि पुरुषों का झुकाव भौतिकता की तरफ होता है।
— NaanSenseGuy (@NanSenseGuy) November 6, 2024
ये विचार बताता है कि समाज का एक बड़ा हिस्सा कैसे स्त्रियों की भावनात्मक ज़रूरतों को दरकिनार कर देता है और उन्हें महज एक… pic.twitter.com/hVSgV4Dos0
ओशो के विचार हमें इस ओर भी ध्यान दिलाते हैं कि महिलाएँ महज शारीरिक वस्तु नहीं हैं, बल्कि उनके पास गहरे भावनात्मक और मानसिक आयाम हैं जिनका सम्मान होना चाहिए। यह दृष्टिकोण समाज के एक बड़े हिस्से को चुनौती देता है जो महिलाओं की भावनात्मक जरूरतों की उपेक्षा करता है और उन्हें केवल एक भौतिक दृष्टिकोण से देखता है। इस परिप्रेक्ष्य से, ओशो का विचार हमें यह याद दिलाता है कि महिलाओं को समझने के लिए समाज को अपनी परंपरागत सोच से ऊपर उठना होगा और उनकी भावनाओं की कद्र करनी होगी।
ओशो का यह भी मानना है कि महिलाओं और पुरुषों के दृष्टिकोण में यह भिन्नता दर्शाती है कि ईश्वर ने इस संसार को नहीं बनाया, क्योंकि हर चीज आपस में ठीक से फिट नहीं बैठती। उनका इशारा इस ओर है कि संसार में महिलाओं और पुरुषों की प्राथमिकताओं में अंतर होना स्वाभाविक है, लेकिन इसे समझना और सम्मान देना समाज का कर्तव्य है। ओशो के अनुसार, पुरुषों को इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि महिलाओं की ज़रूरतें और इच्छाएँ उनसे अलग हो सकती हैं, और इसे स्वीकार करना स्वस्थ समाज की निशानी है।
अंततः, ओशो के विचार समाज को एक गहरी और नई दिशा में सोचने के लिए प्रेरित करते हैं। महिलाओं की भावनात्मक और मानसिक जरूरतों की उपेक्षा कर उन्हें सिर्फ एक वस्तु के रूप में देखना पितृसत्ता की एक प्रमुख समस्या है, जिसे खत्म करना जरूरी है। ओशो का यह सन्देश हमें याद दिलाता है कि महिलाओं को केवल शारीरिक संतोष के साधन के रूप में नहीं बल्कि आत्मीयता और गहरे जुड़ाव के साथ देखना जरूरी है। सवाल यह उठता है कि समाज कब महिलाओं के दृष्टिकोण और प्राथमिकताओं को महत्व देना सीखेगा, ताकि एक ऐसा समाज बन सके जहाँ महिलाओं और पुरुषों के बीच सच्ची समानता स्थापित हो सके।