क्रांति कुमार ने दिलीप मंडल के दावे को दी चुनौती: 'डॉ. आंबेडकर का परिवार मिलिट्री एलीट नहीं, बल्कि संघर्षशील था

हाल ही में एक सोशल मीडिया पोस्ट ने काफी सुर्खियां बटोरी, जिसमें क्रांति कुमार नामक लेखक और इतिहासकार ने प्रसिद्ध लेखक और समाजशास्त्री दिलीप मंडल द्वारा किए गए एक बयान पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की। दिलीप मंडल ने अपने एक पोस्ट में कहा कि डॉ. बाबा साहेब आंबेडकर एक सैनिक अधिकारी के बेटे थे, और उनके दादा भी सेना में सूबेदार के पद पर थे। इस बयान से मंडल जी शायद यह बताने की कोशिश कर रहे थे कि बाबा साहेब एक "मिलिट्री बैकग्राउंड" वाले परिवार से थे। लेकिन, क्रांति कुमार ने इस दृष्टिकोण पर सवाल उठाते हुए कहा कि यह एक अधूरी कहानी है और इसके पीछे का ऐतिहासिक सत्य कुछ और है।

ब्रिटिश सेना में महार समुदाय का प्रवेश और संघर्ष

बाबा साहेब आंबेडकर का जन्म 1891 में हुआ था। उनके पिता, रामजी मालोजी सकपाल, ब्रिटिश सेना में सूबेदार के पद पर थे, जो उस समय महार समुदाय के लोगों के लिए एक सम्मानजनक पद था। ब्रिटिश सरकार ने विभिन्न जातियों के लोगों को अपनी सेना में भर्ती करना शुरू किया था, जिसमें महार समुदाय के लोगों को भी स्थान मिला। महार समाज, जो कि भारतीय समाज में निचले पायदान पर रखा गया था, ब्रिटिश सेना में भर्ती होकर एक प्रकार से आत्मनिर्भरता और आत्मसम्मान की ओर अग्रसर हुआ।

 

 महारों की सेना में भर्ती पर प्रतिबंध

हालांकि, ब्रिटिश सेना में महार समुदाय की भर्ती को लेकर समय-समय पर विवाद उत्पन्न हुए। 1893 में ब्रिटिश सरकार ने महार समुदाय के लोगों की सेना में भर्ती पर एक प्रकार की रोक लगा दी। इसका मुख्य कारण यह था कि उच्च जातियों के भारतीय सैनिकों को महारों के साथ बैरकों में मेलजोल रखने में समस्या होती थी। इस प्रकार के भेदभाव और सामाजिक वर्ग की खाई ने महार समाज के लोगों को फिर से समाज के हाशिए पर धकेल दिया। इस प्रतिबंध के कारण ही बाबा साहेब आंबेडकर के पिता उन आखरी पीढ़ी के महारों में से एक थे जिन्हें ब्रिटिश सेना में नियमित नौकरी का अवसर मिला था।

क्या आंबेडकर का परिवार "मिलिट्री एलीट" था?

दिलीप मंडल के बयान पर प्रतिक्रिया देते हुए क्रांति कुमार का यह कहना है कि बाबा साहेब का परिवार किसी प्रकार का "मिलिट्री एलीट" परिवार नहीं था। ब्रिटिश सेना में नौकरी के कारण महार समाज में एक मिडिल क्लास वर्ग का निर्माण हुआ, जिसने अपने बच्चों को शिक्षा देने और उन्हें आगे बढ़ाने में योगदान दिया। लेकिन इस "मिलिट्री बैकग्राउंड" को समाज में ऊंचा दर्जा देना उचित नहीं है। बाबा साहेब का परिवार एक संघर्षशील और निम्न मध्यवर्गीय परिवार था जो ब्रिटिश सेना में नौकरी पाकर सामाजिक और आर्थिक रूप से कुछ हद तक सशक्त हो पाया था।

महार समाज और भारतीय समाज में उच्च जातियों का तनाव

ब्रिटिश सेना में महार समुदाय की भर्ती के कारण उच्च जातियों के लोगों में एक असहजता और विरोध की भावना पैदा हुई। बैरकों में उच्च जातियों के लोगों के साथ मेलजोल न रखने की प्रवृत्ति, एक प्रकार से महारों के प्रति सामाजिक और सांस्कृतिक भेदभाव को दर्शाता था। इस भेदभाव के चलते ब्रिटिश सरकार ने महारों की सेना में भर्ती को सीमित कर दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि महार समुदाय की आर्थिक स्थिति पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा और उन्होंने सेना में अपने पैरों के नीचे की जमीन खो दी। बाबा साहेब आंबेडकर ने इसे महसूस किया और बाद में समाज में बराबरी के अधिकार के लिए संघर्ष का संकल्प लिया।

आंबेडकर की दृष्टि और महार समाज की भूमिका

बाबा साहेब आंबेडकर ने अपने जीवन में हमेशा शिक्षा, समानता और समाज में ऊंच-नीच की समाप्ति पर जोर दिया। वह जानते थे कि भारतीय समाज में जातिगत भेदभाव को मिटाने के लिए केवल शिक्षा और रोजगार के अवसर ही महत्वपूर्ण नहीं, बल्कि समाज की सोच में बदलाव भी आवश्यक है। उनके पिता और दादा की सेना में नौकरी ने उनके परिवार को आर्थिक संबल जरूर दिया, लेकिन इसे "मिलिट्री एलीट" के रूप में देखना असत्य और अधूरी जानकारी है।

क्रांति कुमार का कटाक्ष और उसकी गंभीरता

क्रांति कुमार ने दिलीप मंडल के बयान पर कटाक्ष करते हुए लिखा कि "हम Avocado नहीं, Mutton खाते हैं, वो भी हड्डी तोड़कर।" यह बात प्रतीकात्मक रूप से उस वर्गीय भेदभाव की ओर संकेत करती है, जिसमें कथित उच्च वर्ग के लोग अपनी सुविधाओं और सांस्कृतिक प्राथमिकताओं को अलग रखते हैं। क्रांति कुमार का यह बयान केवल दिलीप मंडल के दृष्टिकोण पर प्रश्नचिह्न नहीं उठाता, बल्कि यह एक बड़ी बहस को जन्म देता है कि समाज में किस प्रकार का दृष्टिकोण सही और संतुलित हो सकता है।

बाबा साहेब आंबेडकर के परिवार का इतिहास और उनका संघर्ष भारतीय समाज की उस कड़वी सच्चाई का हिस्सा है, जिसमें सामाजिक न्याय और समानता के लिए बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है। ब्रिटिश सेना में महार समाज की भर्ती ने उस समय के समाज में एक नयी जागरूकता को जन्म दिया, लेकिन उसे अंततः सीमित कर दिया गया। बाबा साहेब ने इस असमानता को महसूस किया और अपने जीवन को समाज में बराबरी के अधिकारों के लिए समर्पित कर दिया।

Rangin Duniya

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