नई दिल्ली– सोशल मीडिया प्लेटफार्म "X" (पूर्व में ट्विटर) पर हाल ही में एक पोस्ट ने ऐतिहासिक बहस को फिर से जागृत कर दिया है। बसावन इंडिया द्वारा की गई इस पोस्ट में दावा किया गया कि ब्रिटिश शासन के दौरान कलकत्ता हाईकोर्ट में प्रीवी काउन्सिल (Privy Council) का अस्तित्व था, और तत्कालीन वायसराय लार्ड चेम्सफोर्ड द्वारा एक ऐसा नियम बनाया गया था जिसके तहत किसी भी ब्राह्मण को प्रीवी काउन्सिल का चेयरमैन बनने की अनुमति नहीं दी गई थी। अंग्रेजों का तर्क था कि "ब्राह्मणों के पास न्यायिक चरित्र नहीं होता," यानी उनके भीतर निष्पक्षता की कमी थी।
न्यायिक चरित्र पर बहस
बसावन इंडिया द्वारा इस पोस्ट में "न्यायिक चरित्र" को परिभाषित करते हुए कहा गया कि इसका अर्थ निष्पक्षता के भाव से है, जिसमें एक न्यायाधीश दोनों पक्षों की दलीलें सुनता है, सभी सबूतों का परीक्षण करता है, और न्याय के सिद्धांतों के आधार पर सही फैसला करता है, न कि अपनी व्यक्तिगत विचारधारा के आधार पर। ब्रिटिश सरकार ने कथित तौर पर यह मत व्यक्त किया था कि ब्राह्मणों में इस तरह की निष्पक्षता का अभाव है।
ब्रिटिश शासनकाल के दौरान न्यायिक प्रक्रियाएं और प्रशासनिक निर्णय अक्सर अंग्रेजी सत्ता द्वारा बनाए गए नियमों और कानूनों पर आधारित थे, जो भारतीय समाज की जातिगत संरचना से प्रभावित थे। कई इतिहासकारों का मानना है कि ब्रिटिशों द्वारा लागू किए गए कानूनों और नीतियों का उद्देश्य भारतीय समाज में फूट डालना और विभाजनकारी रणनीतियों को बढ़ावा देना था।
प्रीवी काउन्सिल ब्रिटिश साम्राज्य की सर्वोच्च न्यायिक संस्था थी, जो भारत सहित अन्य उपनिवेशों के न्यायिक मामलों की सुनवाई करती थी। यह संस्था ब्रिटिश संसद और राजा के अधीन काम करती थी, और भारतीय न्याय प्रणाली में इसके फैसले महत्वपूर्ण माने जाते थे। यदि ऐसा कोई नियम वायसराय चेम्सफोर्ड द्वारा बनाया गया था, तो यह ब्राह्मण समुदाय के खिलाफ एक स्पष्ट पूर्वाग्रह का प्रतीक हो सकता है।
◼️ कलकत्ता हाईकोर्ट में ब्रिटिश काल में प्रीवी काउन्सिल हुआ करती थी, वायसराय लार्ड चेम्सफोर्ड ने नियम बनाया कि कोई भी ब्राह्मण प्रीवी काउन्सिल का चेयरमैन नहीं बन सकता अंग्रेजों ने कहा कि "ब्राह्मणों के पास न्यायिक चरित्र नहीं होता है।"
— बसावन इंडिया (@BasavanIndia) October 17, 2024
◼️ "न्यायिक चरित्र" का मतलब है "निष्पक्षता… pic.twitter.com/Ce6uJ5QXvF
इस पोस्ट ने सोशल मीडिया पर काफी चर्चा पैदा कर दी है, और कई लोग इसे अंग्रेजों द्वारा भारतीय समाज की जातिगत संरचना को तोड़ने की एक साजिश मान रहे हैं। कुछ इतिहासकार इस पर शोध कर रहे हैं कि क्या वास्तव में ब्रिटिश काल में इस प्रकार का कोई औपचारिक नियम था या यह सिर्फ एक सामाजिक धारणा का हिस्सा है।
वहीं, कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि अंग्रेजों द्वारा ब्राह्मणों के खिलाफ यह तर्क उनके लिए न्यायिक प्रणाली को नियंत्रित करने और भारतीय न्यायाधीशों पर ब्रिटिश श्रेष्ठता बनाए रखने का एक तरीका हो सकता था। न्यायिक चरित्र के संदर्भ में जातिगत भेदभाव की यह घटना भारत में न्याय और निष्पक्षता की ब्रिटिश परिभाषा पर सवाल खड़ा करती है।
इस पोस्ट ने हमें एक बार फिर से इतिहास के पन्नों को पलटने और न्यायिक प्रणाली में ब्रिटिश काल के भेदभाव पर विचार करने का मौका दिया है। इस तरह की घटनाएं हमें यह समझने में मदद करती हैं कि किस प्रकार उपनिवेशवाद ने भारतीय समाज और उसकी संरचनाओं को प्रभावित किया।