पटना के खगौल इलाके में ठेकेदारी के व्यवसाय में कार्यरत मोहम्मद शमीम रजा और उनकी पत्नी शमीमा के घर 1985 में एक बेटी का जन्म हुआ। इस बच्ची का नाम इशरत जहां रखा गया, जो बाद में भारतीय राजनीति में एक बड़ा विवाद खड़ा करने वाली घटना का केंद्र बनी। शमीम रजा का परिवार आर्थिक मुश्किलों से गुजर रहा था, और इस कारण 1992 में वे पटना छोड़कर मुंबई के मुम्ब्रा इलाके में आ बसे, जहां उन्होंने 'एशियन कंस्ट्रक्शन' नामक एक कंस्ट्रक्शन कंपनी शुरू की। धीरे-धीरे उनकी आर्थिक स्थिति बेहतर होने लगी, लेकिन 2002 में शमीम रजा का ब्रेन हेमरेज के कारण निधन हो गया।
इशरत जहां, जो उस समय सिर्फ 17 साल की थी, परिवार की दूसरी संतान थी और पढ़ाई के साथ-साथ अपने परिवार की आर्थिक मदद भी कर रही थी। वह मुंबई के गुरु नानक खालसा कॉलेज से बीएससी की पढ़ाई कर रही थी और साथ ही एक चैरिटेबल ट्रस्ट में बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने के साथ-साथ एंब्रॉयडरी का काम भी करती थी। इशरत के कंधों पर अपने परिवार का बोझ था, लेकिन उसकी जिंदगी ने अप्रत्याशित मोड़ लिया जब वह अप्रैल 2004 में जावेद शेख नामक एक व्यक्ति के संपर्क में आई।
अप्रैल 2004 में, इशरत की मां से उसकी एक दोस्त के भाई ने कहा कि जावेद शेख को अपने परफ्यूम बिज़नेस के लिए एक सेल्स गर्ल की जरूरत है। पहले तो इशरत की मां ने इसे स्वीकार करने में हिचकिचाहट दिखाई, लेकिन बेहतर वेतन की वजह से यह प्रस्ताव मान लिया गया। इशरत ने 1 मई 2004 को जावेद शेख के साथ काम करना शुरू किया। इसी बीच, जून 2004 में जावेद के साथ इशरत एक बार फिर से काम के सिलसिले में बाहर गई, लेकिन इस बार इशरत ने अपनी मां को बिना बताए 11 जून को घर छोड़ दिया। इसके अगले दिन, इशरत ने अपनी मां को फोन किया और बताया कि वह जावेद के साथ काम के सिलसिले में बाहर है।
15 जून 2004 को गुजरात पुलिस ने घोषणा की कि एक एनकाउंटर के दौरान चार लोगों को मारा गया, जिनमें इशरत जहां और जावेद शेख भी शामिल थे। पुलिस ने दावा किया कि ये लोग लश्कर-ए-तैयबा के आतंकवादी थे और उनका उद्देश्य गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की हत्या करना था। यह एनकाउंटर ने तुरंत ही राष्ट्रीय सुर्खियां बटोरीं और राजनीतिक भूचाल खड़ा कर दिया।
इशरत जहां की मौत को लेकर सवाल उठने लगे। राजनीतिक दलों के बीच यह मामला जल्द ही विवाद का केंद्र बन गया। कांग्रेस और भाजपा के बीच तीखी बहस शुरू हुई, जबकि मानवाधिकार संगठनों ने पुलिस की कार्यवाही पर गंभीर सवाल उठाए। इशरत जहां के मामले को फर्जी एनकाउंटर के रूप में देखा जाने लगा, और जांच की मांग उठने लगी।
गुजरात में 2002 के दंगों के बाद स्थिति पहले से ही संवेदनशील थी। जब यह एनकाउंटर हुआ, तो कई मानवाधिकार संगठनों और राजनीतिक नेताओं ने इसे फर्जी करार दिया। समाजवादी पार्टी के नेता अबू आजमी और एनसीपी नेता वसंत दावख जैसे नेताओं ने इस मामले को उठाया और इशरत की मां को आर्थिक मदद भी दी। इशरत का अंतिम संस्कार बड़े जनसमूह के बीच हुआ, जिसमें हजारों लोग शामिल हुए। इस दौरान नरेंद्र मोदी के खिलाफ नारेबाजी भी हुई।
इशरत की मौत के बाद लश्कर-ए-तैयबा के पाकिस्तानी अखबार में उसे "शहीद" कहा गया, लेकिन बाद में लश्कर ने अपना बयान वापस ले लिया। इसके बाद, इशरत की मां ने गुजरात हाई कोर्ट में याचिका दायर कर एनकाउंटर को फर्जी घोषित करने की मांग की।
2009 में केंद्र सरकार ने मामले की जांच शुरू की और पुलिस की भूमिका पर सवाल उठने लगे। इस दौरान एसपी तमांग की रिपोर्ट आई, जिसमें एनकाउंटर को फर्जी बताया गया। रिपोर्ट में यह बताया गया कि पुलिस की कहानी में कई खामियां थीं, जैसे कि गोलीबारी के सबूत, बंदूकों का इस्तेमाल और एनकाउंटर की परिस्थितियाँ। इसके बाद, कई पुलिस अधिकारियों पर आरोप लगे और उन्हें जांच के दायरे में लाया गया।
2010 में, 26/11 हमलों के मास्टरमाइंड डेविड हेडली ने दावा किया कि इशरत लश्कर-ए-तैयबा की सदस्य थी। हालांकि, इसके बाद भी सवाल उठते रहे कि क्या इशरत वास्तव में आतंकवादी थी या नहीं।
2011 में सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले की जांच सीबीआई को सौंप दी। सीबीआई ने अपनी जांच में बताया कि एनकाउंटर फर्जी था और इसमें शामिल पुलिस अधिकारियों पर कार्यवाही की गई। लेकिन मामला खत्म नहीं हुआ। केंद्र और राज्य सरकारों के बीच इस मामले को लेकर लगातार विवाद चलता रहा।
इशरत जहां एनकाउंटर केस आज भी भारतीय राजनीति और न्यायिक व्यवस्था में एक बड़ा सवाल बना हुआ है। क्या इशरत सच में आतंकवादी थी, या फिर वह एक निर्दोष लड़की थी, जिसे राजनीतिक साजिश का शिकार बनाया गया? इस सवाल का जवाब शायद आने वाले समय में ही मिले, लेकिन इस मामले ने भारतीय राजनीति और सुरक्षा तंत्र में विश्वास के सवाल खड़े कर दिए हैं।
इशरत जहां का केस एक ऐसा अध्याय है, जिसने एनकाउंटर की प्रामाणिकता, पुलिस तंत्र की भूमिका, और राजनीतिक दबावों के सवालों को नई दिशा दी। इस पर चर्चा और कानूनी लड़ाई आज भी जारी है, और इसके परिणामस्वरूप पुलिस और राजनीति के बीच के जटिल संबंध सामने आए हैं।