हाल ही में कर्नाटक हाई कोर्ट के एक फैसले ने एक नई बहस को जन्म दे दिया है। हाई कोर्ट के जज एम. नागप्रसन्ना ने अपने फैसले में कहा कि मस्जिद के अंदर 'जय श्री राम' का नारा लगाने से किसी की धार्मिक भावनाएं आहत नहीं होती हैं। यह बयान सोशल मीडिया और विभिन्न प्लेटफार्मों पर विवाद का विषय बन गया है, जिसमें अंसार इमरान की एक पोस्ट विशेष रूप से चर्चा का केंद्र बनी हुई है।
फैसले का विवादित पहलू
जज एम. नागप्रसन्ना के इस फैसले पर कई लोगों ने कड़ी प्रतिक्रिया दी है। दक्षिण कन्नड़ जिले के कीर्तन कुमार और सचिन कुमार के खिलाफ मस्जिद में 'जय श्री राम' के नारे लगाने के मामले में सुनवाई के दौरान जज ने कहा कि "मस्जिद एक सार्वजनिक संपत्ति है, इसलिए वहां पर 'जय श्री राम' का नारा लगाने से किसी की धार्मिक भावनाएं आहत नहीं होती हैं।" उनके अनुसार, इस तरह की घटनाओं पर 295A जैसी आपराधिक धाराओं का इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए, जो धार्मिक भावनाओं को आहत करने वाले मामलों पर लागू होती है।
यह फैसला, जिसमें आरोपी व्यक्तियों के खिलाफ कोई आपराधिक कार्रवाई नहीं बनती, ने न्यायपालिका की निष्पक्षता पर गंभीर सवाल खड़े किए हैं। अंसार इमरान ने अपनी पोस्ट में जज के इस निर्णय को "संघी मानसिकता" से प्रेरित बताते हुए इसकी कड़ी आलोचना की। उनका सवाल था कि अगर कोई मुसलमान हिंदू मंदिर में 'अल्लाहू अकबर' के नारे लगाए, तो क्या उसी तरह का निर्णय लिया जाएगा?
कर्नाटक हाई कोर्ट के जज साहब कहिन,
— Ansar Imran SR (@ansarimransr) October 15, 2024
"मस्जिद के अंदर 'जय श्री राम' का नारा लगाने से धार्मिक भावनाएं आहत नहीं होती है"
मुसलमान की धार्मिक भावना के मामले में न्यायपालिका कितनी निष्पक्ष है आज कर्नाटक हाई कोर्ट के एक फैसले से बखूबी साबित हो चुका है।
कर्नाटक हाईकोर्ट के एक जज महोदय… pic.twitter.com/X6iwu6ESOs
विचारधारात्मक प्रभाव की बहस
इस फैसले ने न्यायपालिका में राजनीतिक और विचारधारात्मक प्रभाव की संभावनाओं को लेकर भी चिंताएं बढ़ा दी हैं। अंसार इमरान ने लिखा, "आज कर्नाटक हाई कोर्ट के एक फैसले से यह साफ हो चुका है कि मुसलमानों की धार्मिक भावनाओं के मामले में न्यायपालिका कितनी निष्पक्ष है।" उन्होंने आगे कहा कि मौजूदा दौर में न सिर्फ सरकार बल्कि न्यायपालिका भी इस तरह के प्रभाव से अछूती नहीं है।
न्यायपालिका पर विश्वास की कमी
यह मुद्दा केवल कानून और धार्मिक भावनाओं का नहीं है, बल्कि यह सवाल भी उठाता है कि क्या न्यायपालिका से जुड़े फैसले सभी वर्गों के प्रति समान रूप से संवेदनशील हैं। इमरान ने लिखा, "जिस न्यायपालिका के भरोसे आप इंसाफ की उम्मीद पर बैठे हैं, वह भी पूरी तरीके से 'खाकी चड्डी' में तब्दील हो चुकी है," जो कि न्यायपालिका में संघी विचारधारा के प्रभाव का प्रतीकात्मक आरोप है.
यह मामला एक संवेदनशील मुद्दे को लेकर गहरे विवाद का कारण बना हुआ है। एक ओर, कोर्ट का फैसला कानूनी दृष्टिकोण से देखने योग्य है, वहीं दूसरी ओर, इस पर धार्मिक और सांस्कृतिक भावनाओं के आधार पर सवाल उठाए जा रहे हैं। न्यायपालिका पर निष्पक्षता बनाए रखने का दबाव बढ़ रहा है, और यह देखना दिलचस्प होगा कि इस मामले पर आने वाले दिनों में और किस प्रकार की प्रतिक्रियाएं सामने आती हैं।