इतिहास के पन्नों में धार्मिक संघर्ष, सामाजिक परिवर्तन और सत्ता के लिए लड़ाईयां अनिवार्य रूप से दर्ज होती हैं। भारत के इतिहास में एक ऐसा ही अहम अध्याय है पुष्यमित्र शुंग का, जो मौर्य साम्राज्य के पतन और शुंग वंश के उदय से जुड़ा हुआ है। पुष्यमित्र शुंग का नाम भारतीय इतिहास में एक विवादास्पद शख्सियत के रूप में आता है, जो बौद्ध धर्म के पतन और ब्राह्मणवादी व्यवस्था की पुनःस्थापना के लिए जिम्मेदार माना जाता है। इसके साथ ही, उनका शासन एक बड़े सामाजिक और धार्मिक बदलाव का प्रतीक भी बनता है।
सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म को स्वीकार किया और इसे अपने शासन का केंद्रीय सिद्धांत बनाया। अशोक के शासनकाल में बौद्ध धर्म का जबरदस्त प्रसार हुआ, और यह उत्तर-पश्चिम भारत से लेकर दक्षिण एशिया के विभिन्न हिस्सों तक फैल गया। अशोक का राज्य धर्म और न्याय पर आधारित था, जिसमें हिंसा को त्यागकर शांति और सह-अस्तित्व को बढ़ावा दिया गया। अशोक के द्वारा बनाए गए शिलालेख इस बात का प्रमाण हैं कि उन्होंने युद्ध की बजाए संवाद के माध्यम से राज्यों को अपने अधीन किया।
लेकिन अशोक के निधन के बाद मौर्य साम्राज्य कमजोर पड़ने लगा। अशोक के बाद आए शासक, विशेष रूप से बृहद्रथ मौर्य, इतने सक्षम नहीं थे कि साम्राज्य को एकजुट रख सकें। इसी बीच, पुष्यमित्र शुंग, जो मौर्य साम्राज्य के प्रधान सेनापति थे, ने बगावत कर दी और बृहद्रथ मौर्य की हत्या कर सत्ता पर कब्जा कर लिया। इस सत्ता परिवर्तन ने न केवल राजनीतिक, बल्कि धार्मिक और सामाजिक संरचनाओं को भी प्रभावित किया।
पुष्यमित्र शुंग का शासन और ब्राह्मणवाद का पुनःस्थापन
पुष्यमित्र शुंग का शासनकाल ब्राह्मणवादी मूल्यों की पुनःस्थापना के लिए जाना जाता है। सम्राट अशोक के बौद्ध धर्म को समर्थन देने और समाज में समता की स्थापना की कोशिशों के कारण ब्राह्मण वर्ग पहले से ही अशोक के शासन से नाराज था। पुष्यमित्र ने सत्ता में आने के बाद ब्राह्मणवाद को फिर से स्थापित करने के लिए कदम उठाए। ऐसा कहा जाता है कि उनके शासनकाल में बौद्ध धर्म और बौद्ध भिक्षुओं के खिलाफ अत्याचार किए गए, और कई बौद्ध विहारों को नष्ट किया गया। पुष्यमित्र का यह कदम ब्राह्मणवादी परंपराओं और समाज में ऊँच-नीच की व्यवस्था को फिर से मजबूत करने के उद्देश्य से था।
इतिहासकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का मानना है कि पुष्यमित्र शुंग के शासनकाल में बौद्ध भिक्षुओं की हत्याएं बड़े पैमाने पर हुईं, और उन्हें देश छोड़ने के लिए मजबूर किया गया। श्रीलंका, म्यांमार, थाईलैंड और तिब्बत जैसे देशों में बौद्ध धर्म के प्रसार का एक बड़ा कारण यह भी माना जाता है कि पुष्यमित्र शुंग के शासनकाल में बौद्ध धर्म के अनुयायियों को भारत छोड़ने के लिए विवश किया गया था।
पुष्यमित्र शुंग और मनुस्मृति का निर्माण
पुष्यमित्र शुंग के शासनकाल का एक और प्रमुख कदम था मनुस्मृति का निर्माण। मनुस्मृति ने वर्ण व्यवस्था को स्पष्ट रूप से स्थापित किया, जिसमें ब्राह्मणों को उच्चतम स्थान और शूद्रों को निम्नतम स्थान दिया गया। इसके अलावा, स्त्रियों की सामाजिक स्थिति को भी मनुस्मृति में बहुत निम्न स्तर पर रखा गया। इस प्रकार, पुष्यमित्र शुंग का शासनकाल सामाजिक असमानताओं को पुनःस्थापित करने वाला एक युग साबित हुआ।
डॉ. बी.आर. अंबेडकर ने भारतीय इतिहास के सबसे बड़े अंतर्विरोध को बौद्ध धर्म और ब्राह्मणवाद के बीच का संघर्ष माना है। उनका कहना था कि पुष्यमित्र शुंग का शासन एक प्रतिक्रांति था, जो सम्राट अशोक द्वारा स्थापित समता और अहिंसा पर आधारित बौद्धिक क्रांति के खिलाफ था। अंबेडकर ने इसे "काउंटर-रिवोल्यूशन" कहा, जिसमें बौद्ध धर्म के सिद्धांतों का उन्मूलन कर ब्राह्मणवादी विचारों को फिर से स्थापित करने की कोशिश की गई।
17वीं शताब्दी में तिब्बत से आए बौद्ध भिक्षु तारानाथ ने पुष्यमित्र शुंग के शासनकाल के अत्याचारों का वर्णन किया है। उन्होंने बताया कि कैसे बौद्ध विहारों को नष्ट किया गया और बौद्ध धर्म के अनुयायियों को मारा गया। इसके अलावा, कई पुरातात्विक साक्ष्य भी पुष्यमित्र शुंग के बौद्ध धर्म पर हमलों की पुष्टि करते हैं। सांची के स्तूप पर भी उनके शासनकाल में हमले किए गए थे।
पुष्यमित्र शुंग के शासनकाल के दौरान ब्राह्मणवाद का पुनरुत्थान हुआ और बलिप्रथा जैसी पुरानी धार्मिक परंपराएं फिर से जीवित हो गईं। इसके साथ ही, अश्वमेध यज्ञ जैसे अनुष्ठानों को भी पुनः प्रारंभ किया गया। यह दर्शाता है कि पुष्यमित्र शुंग ने बौद्ध धर्म के प्रति अपने विरोध को धार्मिक अनुष्ठानों और ब्राह्मणवादी मूल्यों को पुनर्स्थापित करने के लिए इस्तेमाल किया।
पुष्यमित्र शुंग का शासनकाल भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ था। यह वह समय था जब बौद्ध धर्म, जो भारत में एक प्रमुख धर्म बन चुका था, को दबाया गया और ब्राह्मणवादी परंपराओं को फिर से स्थापित किया गया। हालांकि पुष्यमित्र शुंग के शासनकाल के बारे में कई विवादित धारणाएं हैं, परंतु उनका प्रभाव आज भी भारतीय समाज की संरचनाओं में देखा जा सकता है।
भारत के इतिहास को सही परिप्रेक्ष्य में समझना जरूरी है, क्योंकि यह हमें बताता है कि हमारे समाज में सामाजिक असमानताएं और धार्मिक संघर्ष नई बात नहीं हैं। बल्कि, यह पुरानी परंपराओं और सत्ता के लिए किए गए संघर्षों का परिणाम हैं।