नई दिल्ली। भारत के आठ राज्यों में आदिवासी और ग्रामीण समुदायों के विरोध के बावजूद उनकी जमीन को कारोबारियों के हवाले करने का एक बड़ा खुलासा सामने आया है। यह जानकारी इंडिया स्पेंड की एक रिपोर्ट के जरिए मिली है, जिसमें खुलासा हुआ है कि छत्तीसगढ़, ओडिशा, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, हिमाचल प्रदेश, तेलंगाना और कर्नाटक में कुल 38 मामले सामने आए हैं, जहां 1,734 वर्ग किलोमीटर में फैली लगभग 10 लाख आदिवासी-वनवासी लोगों की भूमि को बिना उनकी अनुमति के कारोबारियों को दे दिया गया।
केंद्र सरकार ने 2009 में वन अधिकार अधिनियम, 2006 के तहत किसी भी वन भूमि पर उद्योगों की स्थापना के लिए संबंधित ग्राम सभाओं के 50 फीसदी सदस्यों की सहमति प्राप्त करना अनिवार्य किया था। हालांकि, इन मामलों में इस कानून को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया गया। रिपोर्ट के अनुसार, इन नियमों की अनदेखी कर दी गई और आदिवासी समुदायों की राय और सहमति के बिना उनकी भूमि का अधिग्रहण किया गया।
भारत में आदिवासी जमीन की लूट एक गंभीर और चिंता का विषय है। आदिवासी समुदायों की जमीन, जो उनकी सांस्कृतिक और पारंपरिक पहचान का अभिन्न हिस्सा है, अक्सर विकास परियोजनाओं और औद्योगिक विस्तार के नाम पर छिनी जा रही है। इससे न केवल उनकी पारंपरिक जीवनशैली को खतरा है, बल्कि उनके अधिकारों… pic.twitter.com/UtQD8AroEz
— Tribal Army (@TribalArmy) September 5, 2024
बस्तर में विरोध के बावजूद मंजूरी
बस्तर जिले में अगस्त 2016 में राज्य सरकार ने आरती स्पंज एंड पावर लिमिटेड को 3,155 हेक्टेयर वनभूमि की मंजूरी दी। हालांकि, इसके लिए आदिवासी समुदाय की सहमति प्राप्त नहीं की गई। मंत्रालय की वेबसाइट पर अपलोड किए गए वन मंजूरी दस्तावेजों की समीक्षा के बाद, यह पाया गया कि जिला कलक्टर ने 26 सितंबर 2016 को ग्रामीणों की सहमति का दावा किया, जबकि इस संबंध में कोई सलाह नहीं ली गई थी। पंचायत ने मई 2017 में विरोध प्रस्ताव पारित किया था, लेकिन इसे नजरअंदाज कर दिया गया। इसके अलावा, कुछ मामलों में दावा किया गया कि प्रभावित क्षेत्र में कोई आदिवासी नहीं है या वे परियोजना के खिलाफ नहीं हैं, जो कि पूर्ण रूप से गलत था।
राजस्थान में वन अधिकारों का उल्लंघन
राजस्थान में, सरकार ने 2012 में बिजली कंपनी राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड (आरवीयूएनएल) को वन क्षेत्र में खनन की अनुमति दी थी। इसके अनुबंध के तहत, अडाणी कंपनी जैसे बड़े उद्योग यहां काम कर रहे हैं। 2015 में, राज्य सरकार ने आदिवासी वन अधिकारों को रद्द कर दिया, यह कहते हुए कि आदिवासी अधिकारों का दुरुपयोग हो रहा था और खनन कार्य में बाधा डाल रहा था।
अंतरराष्ट्रीय और घरेलू प्रतिक्रिया
ट्राइबल आर्मी ने X (पूर्व में ट्विटर) पर पोस्ट करते हुए लिखा, "अमेरिका में मूल अमेरिकी आदिवासी समुदायों की भूमि धीरे-धीरे छीनी गई, जिससे उनकी सांस्कृतिक विरासत और जीवन का तरीका गंभीर रूप से प्रभावित हुआ। हमें इस ऐतिहासिक अन्याय को समझना होगा और भारत में जारी आदिवासी जमीन की लूट को भी रोकना होगा।"
भारत में आदिवासी जमीन की लूट एक गंभीर चिंता का विषय है। आदिवासी समुदायों की जमीन, जो उनकी सांस्कृतिक और पारंपरिक पहचान का हिस्सा है, अक्सर विकास परियोजनाओं और औद्योगिक विस्तार के नाम पर छीनी जा रही है। इससे न केवल उनकी पारंपरिक जीवनशैली को खतरा है, बल्कि उनके अधिकारों और अस्तित्व पर भी बुरा असर पड़ता है।
सरकारी कदम और आवश्यक सुधार
केंद्र सरकार और राज्य सरकारों को आदिवासी अधिकारों की रक्षा करने, भूमि अधिग्रहण में पारदर्शिता सुनिश्चित करने, और आदिवासी समुदायों के साथ उनकी सहमति के बिना कोई निर्णय न लेने की दिशा में ठोस कदम उठाने की आवश्यकता है। इसके अलावा, आदिवासी समुदायों को उनके भूमि अधिकारों के प्रति संवेदनशीलता और कानूनी सुरक्षा प्रदान करना भी महत्वपूर्ण है।
समाजिक जागरूकता बढ़ाना और जनसाधारण को आदिवासी अधिकारों के प्रति संवेदनशील बनाना जरूरी है ताकि इस ऐतिहासिक अन्याय को रोका जा सके। यह समय की मांग है कि आदिवासी समुदायों की समस्याओं को गंभीरता से लिया जाए और उनके अधिकारों की रक्षा के लिए ठोस कदम उठाए जाएं।
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