बांग्लादेश में हाल ही में हुई हिंसा और उसके परिणामस्वरूप दलितों की हत्या की खबरों ने भारतीय दलित नेताओं की चुप्पी को एक महत्वपूर्ण मुद्दा बना दिया है। हिंदुत्ववादियों का आरोप है कि भारतीय दलित नेता इस अत्याचार पर क्यों नहीं बोल रहे हैं। हालांकि, इस आरोप को समझने के लिए हमें कुछ महत्वपूर्ण पहलुओं पर ध्यान देना होगा।
पहला पहलू यह है कि भारत में दलित समुदाय की स्थिति भी बेहद संवेदनशील और चुनौतीपूर्ण है। यहाँ कोलिजियम कोर्ट, सरकार और अटॉर्नी जनरल ने दलितों के अधिकारों को लेकर कई गंभीर मुद्दे खड़े कर दिए हैं। दलित नेता वर्तमान में अपने समाज के अधिकारों और आरक्षण की सुरक्षा को प्राथमिकता दे रहे हैं। उनकी प्राथमिक चिंता अभी भारतीय दलितों की स्थिति और उनके अस्तित्व की रक्षा करना है। ऐसे में बांग्लादेश की स्थिति पर ध्यान केंद्रित करना उनके लिए एक अतिरिक्त बोझ हो सकता है।
दूसरा पहलू यह है कि बांग्लादेश में हिंसा केवल दलितों के खिलाफ नहीं हो रही है। वहाँ दो प्रमुख प्रकार की हिंसा की घटनाएँ सामने आई हैं: एक, मंदिरों पर हमले, और दो, शेख़ हसीना की पार्टी से जुड़े हिंदू अधिकारियों, नेताओं और व्यवसायियों पर हमले। यह स्पष्ट है कि बांग्लादेश की हिंसा का उद्देश्य केवल दलितों को निशाना बनाना नहीं है, बल्कि यह एक व्यापक धार्मिक और राजनीतिक संकट का हिस्सा है। दलित भी इस हिंसा का शिकार हो रहे हैं, लेकिन यह कहना गलत होगा कि केवल दलित ही प्रभावित हो रहे हैं।
भारत में हिंदू समुदाय के बीच सामाजिक विद्वेष पैदा करने की प्रक्रिया ने दलितों को भी प्रभावित किया है। हालांकि, यह सोचना कि वंचित जातियाँ इस स्थिति में आकर बांग्लादेश के घटनाक्रम पर प्रतिक्रिया करेंगी, निराधार है। दलित समाज की प्राथमिकता अभी भारतीय संविधान में आवश्यक संशोधनों की है, जो उनकी सुरक्षा और अधिकारों को सुनिश्चित कर सके।
इस स्थिति में, यह महत्वपूर्ण है कि हम भारतीय दलित नेताओं की चुप्पी को समझें और इसे केवल असंवेदनशीलता के रूप में न देखें। बांग्लादेश में हो रही हिंसा और उसके दुष्परिणाम भी एक जटिल समस्या हैं, और इससे निपटने के लिए एक सुसंगठित और व्यापक दृष्टिकोण की आवश्यकता है। जब तक भारतीय दलित नेताओं का ध्यान अपनी समस्याओं और सुधारों पर केंद्रित है, तब तक बांग्लादेश की स्थिति पर उनकी चुप्पी को अनदेखा नहीं किया जा सकता है।
दिलीप मंडल