शिवजी की पूजा में अर्ध परिक्रमा, जिसे चंद्राकार परिक्रमा भी कहते हैं, का विशेष महत्व है। यह परिक्रमा इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह शिव के सोमसूत्र का उल्लंघन नहीं करती। शास्त्रों के अनुसार, शिवलिंग को ज्योति और उसके आसपास के क्षेत्र को चंद्र माना गया है। इसलिए, शिवलिंग की आधी परिक्रमा चंद्राकार की तरह होती है, जो इस ब्रह्मांड की ज्योतिर्लिंग के समान है।
सोमसूत्र और उसका महत्व
शिवलिंग की निर्मली को सोमसूत्र कहा जाता है। शास्त्रों के अनुसार, शिवजी की प्रदक्षिणा करते समय सोमसूत्र का उल्लंघन नहीं करना चाहिए, अन्यथा दोष लगता है। सोमसूत्र वह स्थान होता है जहां भगवान को चढ़ाया गया जल गिरता है।
अर्द्ध सोमसूत्रांतमित्यर्थ: शिव प्रदक्षिणीकुर्वन सोमसूत्र न लंघयेत, इति वाचनान्तरात।
इसका उल्लंघन करने से शरीर और मन पर बुरा असर पड़ता है क्योंकि सोमसूत्र में शक्ति-स्रोत होता है। इसलिए, जब व्यक्ति सोमसूत्र को लांघता है, तो उसका प्रभाव शरीर की अंदरूनी वायु और ऊर्जा प्रवाह पर विपरीत पड़ता है, जिससे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है।
अर्ध परिक्रमा का विधि
शिवलिंग की परिक्रमा हमेशा बांई ओर से शुरू की जाती है। इसे जलाधारी के आगे निकले हुए भाग यानी जल स्रोत तक जाकर फिर विपरीत दिशा में लौटकर दूसरे सिरे तक आकर पूरा किया जाता है। यह विधि शिव की आधी परिक्रमा को चंद्राकार रूप में संपन्न करती है और सोमसूत्र का उल्लंघन भी नहीं करती। शास्त्रों में यह भी कहा गया है कि तृण, काष्ठ, पत्ता, पत्थर या ईंट से ढके हुए सोमसूत्र का उल्लंघन करने से दोष नहीं लगता है, लेकिन शिव की अर्ध परिक्रमा ही सही मानी जाती है।
इस प्रकार, शिवजी की आधी परिक्रमा का विधान और सोमसूत्र का महत्व धार्मिक और शास्त्रीय दृष्टिकोण से अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। यह परिक्रमा शिवजी की उपासना के सही तरीके को दर्शाती है और भक्तों को सही दिशा प्रदान करती है।
हर-हर महादेव, जय महाकाल!