प्रोफेसर दिलीप मंडल ने हाल ही में जस्टिस पंकज मिथिल पर एक टिप्पणी की है, जिसने न्यायपालिका के भीतर और बाहर बहस को जन्म दिया है। मंडल ने अपने बयान में सवाल उठाया है कि अगर जस्टिस पंकज मिथिल के पिता न्यायमूर्ति नरेंद्र नाथ मिथिल हाई कोर्ट में जज नहीं होते, तो क्या वे आज एक न्यायाधीश के पद पर पहुंच सकते थे? मंडल ने यह भी सवाल किया है कि क्या ऐसे लोगों को देश को ज्ञान देने का अधिकार है जो कोलिजियम से जज बने हैं और जिनका सिविल सेवा या क्लर्क की परीक्षा से कोई सीधा संबंध नहीं रहा।
जस्टिस पंकज मिथिल के पिता, न्यायमूर्ति नरेंद्र नाथ मिथिल, जो 6 अप्रैल 1930 को जन्मे और 7 अप्रैल 1996 को निधन हुए, एक प्रमुख सिविल वकील थे और इलाहाबाद उच्च न्यायालय में न्यायाधीश के रूप में कार्यरत रहे। न्यायमूर्ति मिथिल ने 1978 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय में न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति प्राप्त की थी और उन्होंने 8 अप्रैल 1992 तक इस पद पर कार्य किया। उन्हें जिला बार से सीधे न्यायाधीश बनाया गया था, जो उस समय एक असामान्य बात थी।
इनके बाप हाई कोर्ट में जज न होते तो ये क्लर्क या SSC की परीक्षा पास कर पाते या नहीं, इसमें भी शक है। कोलिजियम से जज बने ऐसे लोग भी देश को ज्ञान देंगे?
— Dilip Mandal (@Profdilipmandal) August 2, 2024
ये और इनके आदरणीय पिता दोनों वकील से सीधे जज बने। कोई परीक्षा नहीं।
पता नहीं देश का क्या होने वाला है? #EndCollegium pic.twitter.com/80TByJQj8W
दिलीप मंडल का यह बयान, जो सोशल मीडिया पर व्यापक रूप से चर्चा का विषय बना हुआ है, न्यायपालिका में पारदर्शिता और योग्यता के मुद्दे पर सवाल उठाता है। मंडल ने कहा, "क्या ऐसे लोग जो बिना किसी परीक्षा के सीधे जज बनते हैं, वास्तव में न्याय व्यवस्था में उचित स्थान रखते हैं? क्या उनका ज्ञान और अनुभव न्यायपालिका की गुणवत्ता को प्रभावित नहीं करता?"
इस टिप्पणी ने न्यायिक नियुक्तियों की पारदर्शिता और योग्यता की प्रक्रिया पर सवाल उठाए हैं। मंडल की टिप्पणियों ने इस मुद्दे पर एक नई बहस को जन्म दिया है कि क्या न्यायपालिका में नियुक्तियों में पारदर्शिता और योग्यता का पूर्ण ध्यान रखा जाता है, या क्या राजनीतिक और पारिवारिक कनेक्शंस इस प्रक्रिया को प्रभावित करते हैं।
इस विषय पर प्रतिक्रिया स्वरूप, कई कानूनी विशेषज्ञों और न्यायाधीशों ने भी अपनी राय व्यक्त की है। कुछ का कहना है कि नियुक्तियों की प्रक्रिया में सुधार की आवश्यकता है, जबकि अन्य का मानना है कि यह व्यक्तिगत आलोचना का हिस्सा है और इस पर ध्यान नहीं देना चाहिए।
जैसे-जैसे यह विवाद बढ़ता जा रहा है, यह स्पष्ट हो गया है कि न्यायपालिका में नियुक्तियों की प्रक्रिया और पारदर्शिता के मुद्दे पर व्यापक बहस जारी रहेगी।