नई दिल्ली: हाल ही में दिलीप मंडल और सूरज कुमार बौद्ध ने ट्विटर पर ट्ववीट करते हुए एक बार फिर से सुप्रीम कोर्ट की भूमिका और न्यायिक शक्ति पर गंभीर सवाल उठाए हैं। दिलीप मंडल का कहना है कि अगर सुप्रीम कोर्ट का जोर चलता, तो आज भी देश में ज़मींदारी सिस्टम कायम होता। उन्होंने बताया कि कम से कम बीस ऐसे फैसले सुप्रीम कोर्ट ने दिए हैं जो ज़मींदारी के पक्ष में थे, जिन्हें बाद में जनता के दबाव के चलते संसद ने कानून बनाकर या संविधान संशोधन के जरिए पलट दिया।
ज़मींदारी उन्मूलन के मुद्दे पर दिलीप मंडल का ये बयान उस ऐतिहासिक संघर्ष की याद दिलाता है जिसमें जनता और संसद ने ज़मींदारी प्रथा के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी। 1950 के दशक में ज़मींदारी उन्मूलन के कानूनों का विरोध सुप्रीम कोर्ट में किया गया था, और कई मौकों पर सुप्रीम कोर्ट ने ज़मींदारी के पक्ष में फैसला सुनाया। हालांकि, जनहित और संसद के हस्तक्षेप ने इस प्रथा को समाप्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
दिलीप मंडल का यह बयान न केवल न्यायपालिका के फैसलों पर सवाल उठाता है, बल्कि यह भी इशारा करता है कि सुप्रीम कोर्ट ने सामाजिक न्याय के मामले में हमेशा प्रगतिशील रुख नहीं अपनाया है। यह सोचने पर मजबूर करता है कि क्या न्यायपालिका और संसद के बीच शक्ति संतुलन को और बेहतर करने की जरूरत है।
अगर सुप्रीम कोर्ट का जोर चलता तो आज भी देश में ज़मींदारी सिस्टम चल रहा होता। कम से कम बीस फ़ैसले सुप्रीम कोर्ट के ज़मींदारी के पक्ष में रहे हैं। जनता के दबाव के कारण हर बार संसद को क़ानून बनाकर या संविधान संशोधन करके उनको पलटना पड़ा। सुप्रीम कोर्ट ने बहुत ज़्यादा कटुता फैलाई है। https://t.co/3WDbMuLa8Z
— Dilip Mandal (@Profdilipmandal) August 19, 2024
सूरज कुमार बौद्ध ने भी इस मुद्दे पर अपनी चिंता व्यक्त की है। उन्होंने कहा कि वंचित समुदाय का हक छिनने के लिए सुप्रीम कोर्ट किसी भी हद तक जाने को तैयार है। उनका आरोप है कि न्यायपालिका अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर संसद के कार्यों को हथियाने की कोशिश कर रही है, जो संसदीय लोकतंत्र के लिए बेहद खतरनाक है। बौद्ध का मानना है कि सरकार को इस तरह के न्यायिक हस्तक्षेप का विरोध करना चाहिए और लोकतंत्र के मूल्यों की रक्षा करनी चाहिए।
इस मामले ने न्यायपालिका और संसद के बीच के रिश्ते को फिर से चर्चा में ला दिया है। सवाल उठता है कि क्या न्यायपालिका को अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर संसद के कार्यों में हस्तक्षेप करना चाहिए, या फिर इसे केवल न्यायिक फैसलों तक ही सीमित रहना चाहिए? जनता, संसद और सरकार के बीच इस महत्वपूर्ण बहस का असर आने वाले समय में भारतीय लोकतंत्र की दिशा और दशा पर पड़ सकता है।