एक समय था जब दिलीप मंडल का नाम सोशल मीडिया के प्लेटफार्मों पर सामाजिक न्याय की लड़ाई में अग्रणी माना जाता था। दलित समुदाय के लोग उन्हें अपनी आवाज समझते थे, उनकी विचारधारा में अपने भविष्य की संभावनाओं को देखते थे। मंडल की बातें अन्याय के खिलाफ एक आग थीं, जो वर्षों से जल रही थीं और समाज के हाशिये पर खड़े लोगों के हक के लिए लड़ाई का प्रतीक थीं।
मंडल ने अपने विचारों के माध्यम से दलित समुदाय को एक नई दिशा दी थी। उनके शब्दों में जो जोश और ऊर्जा थी, उसने न केवल समाज में बदलाव की लहर पैदा की बल्कि लाखों दलितों के दिलों में नई उम्मीदों का संचार किया। उनके नेतृत्व में सामाजिक न्याय की आवाज इतनी बुलंद हुई कि उसे दबाना किसी के लिए भी मुश्किल था। दिलीप मंडल ने अपने विचारों के बल पर उन सभी चुनौतियों का सामना किया, जो उन्हें रोकने के लिए खड़ी की गई थीं।
एक समय था जब दिलीप मंडल का नाम सोशल मीडिया के प्लेटफार्मों पर सामाजिक न्याय की लड़ाई में अग्रणी माना जाता था। दलित समुदाय के लोग उन्हें अपनी आवाज समझते थे, उनकी विचारधारा में अपने भविष्य की संभावनाओं को देखते थे। मंडल की बातें अन्याय के खिलाफ एक आग थीं, जो वर्षों से जल रही थीं और… pic.twitter.com/rTYjJNnjI3
— Hansraj Meena (@HansrajMeena) August 25, 2024
लेकिन आज, वही दिलीप मंडल कहीं धुंधले से लगते हैं। उनकी बातें, जो कभी अन्याय के खिलाफ एक ज्वाला थीं, अब जैसे बुझने लगी हैं। उनका स्वर, जो कभी समाज में बदलाव की गूंज बनता था, अब सत्ता और पद की चाह में खो सा गया है। दलित समाज की आँखों में जो उम्मीदें मंडल के साथ जुड़ी थीं, वे अब धुएं में बदलने लगी हैं।
मंडल की हाल की गतिविधियों से यह साफ़ हो गया है कि अब उनकी प्राथमिकताएं बदल गई हैं। जिस विचारधारा को लेकर वे कभी समर्पित थे, वह अब पहले जैसी ठोस और प्रभावशाली नहीं रही। उनकी बातें अब पहले जैसी जोशभरी नहीं लगतीं, और उनके शब्दों में वह ठोसपन और आग नजर नहीं आती जो उन्हें कभी एक अन्याय के खिलाफ लड़ने वाले व्यक्तित्व के रूप में प्रस्तुत करती थी। अब लोगों के मन में सवाल उठने लगे हैं: क्या ये वही दिलीप मंडल हैं जिन्होंने कभी दलितों के अधिकारों के लिए जी-जान से लड़ाई लड़ी थी? या यह सब एक स्वप्न मात्र था, जो अब टूट चुका है?
इस नई व्यवस्था में मंडल का किरदार अब एक व्यापारी जैसा लगता है, जिसने अपने पुराने आदर्शों को सोने के सिक्कों के लिए तिलांजलि दे दी हो। यह परिवर्तन उन लाखों लोगों के लिए एक गहरा धक्का है, जिन्होंने दिलीप मंडल को अपनी आशाओं और आकांक्षाओं का प्रतीक माना था। उनके विचारों में जो क्रांति थी, वह अब सत्ता की चमक में कहीं धुंधला गई है। मंडल अब सामाजिक न्याय के योद्धा से दूर, एक ऐसी राह पर बढ़ चले हैं, जहां उनकी पहचान अब उस विश्वासघात के साथ जुड़ गई है जिसे उन्होंने कभी खुद अस्वीकार किया था।
दिलीप मंडल का यह परिवर्तन न केवल उनके अनुयायियों के लिए, बल्कि समाज के उन तमाम वर्गों के लिए भी एक गहरी निराशा का कारण बनता जा रहा है, जो उनसे प्रेरणा लेते थे।
लेख- हंसराज मीणा