दुनिया के सबसे प्राचीन ग्रंथों और पुराणों में दर्ज एक अद्वितीय और रहस्यमयी घटना का वर्णन है। यह घटना है 'जब मृत्यु को भी मृत्यु आई', तब क्या हुआ और भगवान शिव ने किस प्रकार से समाधान निकाला।
संसार के प्रारंभिक समय की बात है जब मृत्यु का कार्य पूरी तत्परता और अनुशासन से चलता था। यमराज, जो मृत्यु के देवता थे, अपनी दण्डधारी न्याय प्रणाली से सबकी मृत्यु का समय निश्चित करते थे। परन्तु एक दिन, कुछ असामान्य घटित हुआ। एक अभूतपूर्व संकट ने मृत्यु को भी अपनी चपेट में ले लिया।
मृत्यु का संकट
कथानुसार, एक महाभयंकर असुर ने तपस्या करके ऐसा वरदान प्राप्त किया कि वह न तो देवताओं, न ही राक्षसों, और न ही किसी अन्य प्राणी द्वारा मारा जा सकता था। इस वरदान के कारण वह अभेद्य हो गया और त्रिलोक में आतंक मचाने लगा। उसकी शक्ति इतनी बढ़ गई कि उसने मृत्यु को भी वश में कर लिया। अब कोई भी जीव मर नहीं सकता था और संसार में भयानक अराजकता फैल गई।
देवताओं की शरण
इस संकट से निपटने के लिए देवताओं ने भगवान शिव की शरण ली। भगवान शिव, जो त्रिलोक के स्वामी हैं, ने देवताओं की व्यथा सुनी और समाधान का मार्ग प्रशस्त करने का संकल्प लिया।
भगवान शिव का समाधान
भगवान शिव ने अपनी असीम शक्ति का प्रयोग करते हुए उस असुर को एक युक्ति से पराजित करने का निर्णय लिया। शिवजी ने अपने त्रिशूल से उस असुर का अंत किया, लेकिन इसके लिए उन्हें अपने अनंत ज्ञान का प्रयोग करना पड़ा। शिवजी ने यमराज को फिर से शक्ति प्रदान की और संसार में मृत्यु का क्रम पुनः स्थापित किया।
पुनर्स्थापना का महत्व
इस घटना ने यह स्पष्ट कर दिया कि जीवन और मृत्यु का चक्र अविचलित रहना चाहिए। भगवान शिव ने यह सुनिश्चित किया कि संसार में संतुलन बना रहे और सभी प्राणी अपने कर्मों के अनुसार मृत्यु को प्राप्त कर सकें।
भगवान शिव के इस अद्वितीय समाधान ने संसार को पुनः संतुलित किया और सभी प्राणियों को मृत्यु का महत्व समझाया। यह कथा हमें सिखाती है कि ब्रह्मांड के नियमों का पालन आवश्यक है और अराजकता को समाप्त करने के लिए दिव्य शक्तियों का हस्तक्षेप अनिवार्य हो सकता है।
इस प्रकार, 'जब मृत्यु को भी मृत्यु आई' की यह कथा भगवान शिव की दिव्यता और न्याय की शक्ति को प्रकट करती है।