Photo: Children from China (civil war) Arrving in Hong Kong (1947)
1948 में जब भारत आजादी की नई-नई खुशी मना रहा था, तब चीन, वियतनाम, हॉन्ग कॉन्ग, सिंगापुर, कोरिया और मलेशिया जैसे देश आर्थिक रूप से भारत से बहुत पिछड़े हुए थे। कोरिया की स्थिति भी दयनीय थी। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद फ्रांस, इटली और जर्मनी जैसे देशों की अर्थव्यवस्था भी ध्वस्त हो चुकी थी और ये देश गरीबी के मुहाने पर खड़े थे।
आज, 2024 में, वही देश जो कभी भारत से पिछड़े हुए थे, अब विकसित देशों की सूची में शामिल हो चुके हैं। इनकी अर्थव्यवस्था भारत की तुलना में बहुत मजबूत है। एशियाई देशों ने 1970 से 1985 के बीच ही भारत को आर्थिक और सामाजिक मापदंडों में पीछे छोड़ दिया।
ऐसा कैसे संभव हुआ?
इन सभी देशों ने अपनी जनता की शिक्षा और स्वास्थ्य पर अधिक खर्च किया। उन्होंने अपने नागरिकों को बीमारी, कुपोषण और गरीबी से बचाने के लिए ठोस कदम उठाए। इसके विपरीत, भारत इस मामले में पीछे रह गया।
भारत में IIT और IIM जैसे प्रतिष्ठित संस्थान और JNU और AIIMS जैसे प्रमुख अस्पताल केवल शहरों में बने। DPS जैसे स्कूल भी केवल शहरी क्षेत्रों में ही उपलब्ध थे। इससे ग्रामीण और पिछड़े क्षेत्रों की जनता को शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं से वंचित रहना पड़ा।
किसी भी भारतीय सरकार ने जनता की शिक्षा और स्वास्थ्य पर पर्याप्त खर्च नहीं किया। आज भी बड़ी आबादी इलाज और शिक्षा के लिए संघर्ष कर रही है। गंभीर बीमारियों से जूझ रहे लोगों से पूछें तो पता चलेगा कि भारत की स्वास्थ्य सेवाएं कितनी जर्जर हालत में हैं। निजी अस्पताल तो लूट का अड्डा बने हुए हैं।
जातीय वर्चस्व और प्रशासनिक निर्णय
भारत में सत्ता हमेशा कुछ विशेष जातियों के पास रही है। ब्यूरोक्रेसी पर भी कुछ विशेष जातियों का वर्चस्व रहा है। देश के सभी बड़े निर्णय - प्लानिंग, अर्थव्यवस्था, डिप्लोमेसी, डिफेंस और अंतरिक्ष अनुसंधान से जुड़े सभी निर्णय कुछ विशेष जातियों के अफसर और नेता करते आ रहे हैं।
भारत के पिछड़ेपन का दोष इन्हें नहीं तो किसे दिया जाए? अगर भारत को सचमुच विकसित देशों की श्रेणी में शामिल होना है, तो उसे अपनी प्राथमिकताओं में बदलाव करना होगा। जनता की शिक्षा और स्वास्थ्य पर अधिक ध्यान देना होगा और हर वर्ग को समान अवसर प्रदान करना होगा। तभी भारत भी उन देशों की तरह विकास के मार्ग पर अग्रसर हो सकेगा।