अंबेडकर

जहां बुद्ध स्वयं हार गए वहां अंबेडकर किस झाड़ की पत्ती है.. आंबेडकर गिरगिट है.. धर्म बदलने का दुष्कर्म कर रहा है: सावरकर

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भारतीय इतिहास में सावरकर और डॉ. बी.आर. अंबेडकर के बीच विचारधारात्मक टकराव हमेशा से चर्चा का विषय रहा है। हाल ही में, सावरकर का एक बयान, जिसमें उन्होंने अंबेडकर और बौद्ध धर्म की आलोचना की थी, फिर से सामने आया है, जिसने नए सिरे से विवाद खड़ा कर दिया है। यह लेख इस बयान की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, टिप्पणियों की प्रकृति और इस विचारधारात्मक संघर्ष के आधुनिक भारत में प्रभावों पर प्रकाश डालता है।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: सावरकर और अंबेडकर

सावरकर,  अक्सर हिंदुत्व की वकालत और हिंदू महासभा के गठन में उनकी भूमिका के लिए याद किया जाता है। उनका भारत का सपना हिंदू राष्ट्र के विचार में निहित था, जहां हिंदू संस्कृति और मूल्यों का वर्चस्व हो।

वहीं, डॉ. बी.आर. आंबेडकर, भारतीय संविधान के मुख्य निर्माता, सामाजिक न्याय और वंचितों के अधिकारों के प्रबल समर्थक थे, खासकर दलितों के। जाति व्यवस्था से मोहभंग होने के कारण अंबेडकर ने बौद्ध धर्म को अपनाया, जिसे वे समानता और जाति-आधारित उत्पीड़न से मुक्ति का मार्ग मानते थे।

विवादास्पद टिप्पणियां

सावरकर का यह बयान, जो चर्चा में है, कुछ इस प्रकार है:
“जहां बुद्ध स्वयं हार गए वहां अंबेडकर किस झाड़ की पत्ती है.. आंबेडकर गिरगिट है.. धर्म बदलने का दुष्कर्म कर रहा है..”

इस टिप्पणी को इसके अपमानजनक स्वर और बौद्ध धर्म के प्रति गहरे पूर्वाग्रह के लिए व्यापक आलोचना का सामना करना पड़ा है। यह बयान न केवल आंबेडकर के योगदान को कम करता है, बल्कि बौद्ध धर्म और उसके सिद्धांतों के प्रति एक गहरी पूर्वाग्रह की झलक भी दिखाता है।

सावरकर और अंबेडकर विचारधारात्मक विभाजन

सावरकर और अंबेडकर के बीच का विचारधारात्मक विभाजन भारत के लिए उनके मौलिक रूप से अलग-अलग दृष्टिकोणों में निहित है। सावरकर की हिंदुत्व विचारधारा ने हिंदुओं को एक सांस्कृतिक और धार्मिक पहचान के तहत एकजुट करने का प्रयास किया, जो अक्सर अन्य धार्मिक और सामाजिक समूहों की कीमत पर होता था। वहीं, आंबेडकर का दृष्टिकोण समावेशी था, जो समानता, सामाजिक न्याय और जाति-आधारित भेदभाव के उन्मूलन पर जोर देता था।

1956 में अंबेडकर का बौद्ध धर्म अपनाना भारतीय इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना थी। यह केवल एक धार्मिक परिवर्तन नहीं था, बल्कि जाति व्यवस्था और उसके द्वारा किए गए सामाजिक अन्याय के खिलाफ एक राजनीतिक बयान था। बौद्ध धर्म अपनाकर अंबेडकर ने दलितों को एक नई पहचान और गरिमा प्रदान करने का प्रयास किया, जिन्हें सदियों से हाशिए पर रखा गया था।

सावरकर और अंबेडकर पर आधुनिक प्रभाव और प्रतिक्रियाएं

सावरकर के बयान का फिर से उभरना आधुनिक भारत में उनकी विचारधारा की प्रासंगिकता पर बहस को फिर से शुरू कर देता है। आलोचकों का तर्क है कि ऐसे बयान एक संकीर्ण और बहिष्कारपूर्ण विश्वदृष्टि को दर्शाते हैं, जो भारतीय संविधान में निहित बहुलवादी और लोकतांत्रिक मूल्यों के साथ असंगत है।

डॉ. विलास खरात, एक प्रमुख विद्वान, ने सोशल मीडिया पर सावरकर के विचारों के प्रति अपनी नाराजगी व्यक्त करते हुए लिखा, “धिक्कार है ऐसे सावरकर को।” यह भावना उन कई लोगों द्वारा साझा की गई है, जो सावरकर की टिप्पणियों को आंबेडकर और दलित समुदाय के संघर्षों और उपलब्धियों की अवहेलना के रूप में देखते हैं।

दृष्टिकोणों का टकराव

सावरकर के अंबेडकर और बौद्ध धर्म पर टिप्पणियों से जुड़ा विवाद भारत में विचारधाराओं के सतत टकराव को उजागर करता है। जहां सावरकर की हिंदुत्व विचारधारा कुछ राजनीतिक और सामाजिक हलकों को प्रभावित करती रहती है, वहीं अंबेडकर का समावेशी और समतामूलक समाज का सपना कई लोगों के लिए एक मार्गदर्शक सिद्धांत बना हुआ है।

जैसे-जैसे भारत जाति, धर्म और सामाजिक न्याय के मुद्दों से जूझता रहता है, सावरकर और अंबेडकर की विरासतें उन विविध और अक्सर परस्पर विरोधी दृष्टिकोणों की याद दिलाती हैं, जिन्होंने राष्ट्र के इतिहास को आकार दिया है। उनकी विचारधाराओं पर बहस केवल एक ऐतिहासिक अभ्यास नहीं है, बल्कि भारत की पहचान और भविष्य को परिभाषित करने के लिए चल रहे संघर्ष का प्रतिबिंब है।

इस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और विचारधारात्मक टकराव के आधुनिक प्रभावों को समझकर हम भारत के सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य की जटिलताओं को बेहतर ढंग से समझ सकते हैं। सावरकर और अंबेडकर की विरासतों पर बहस अभी खत्म नहीं हुई है, और यह आधुनिक भारत में जाति, धर्म और पहचान पर चल रहे विमर्श को आकार देती रहेगी।

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